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महिला प्रसूता स्वास्थ्य: देश मे अभी भी सर्वाधिक महिलाएं स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित

हमारे सामुदायिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ *डॉ नरेश पुरोहित, (विजिटिंग प्रोफेसर, एनआईआरईएच, भोपाल), गर्भवती महिलाओं एवम छोटे बच्चों की असमय मृत्यु पर अपनी रिपोर्ट के साथ

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भोपाल/नई दिल्ली: अनेक शोधों से पता चला है कि वित्तपोषण में कमी और प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल में कम निवेश के कारण, गर्भवती महिलाओं के जीवित रहने की दर पर भयावह प्रभाव पड़ने का अंदेशा है। पांच वर्ष तक के बच्चों की अकाल मौत का प्रमुख कारण समय से पहले जन्म है। गर्भवती महिलाओं की बड़ी संख्या में हो रही मौतों की वजह प्रसूताओं में भारी रक्तस्राव, सेप्सिस, जन्म देने के दौरान दौरे पड़ना है। भारत में महिलाओं को स्वास्थ्य बीमा के दायरे में लाने, प्रसव कराने वाले कर्मियों के प्रशिक्षण, चिकित्सकों और नर्सों के प्रशिक्षण में सुधार तो हुआ है, लेकिन देश में आज भी बहुत बड़ी तादाद में महिलाएं इन सुविधाओं से वंचित हैं।

दुनिया टिकाऊ विकास लक्ष्यों को हासिल करने के आधे पड़ाव तक तो पहुंच चुकी है, लेकिन आज भी अपने एजंडे को वास्तविकता में बदलने से बहुत दूर है। लैंगिक समानता लगभग तीन सौ वर्ष दूर है। मातृत्व स्वास्थ्य और परिवार नियोजन की गति बहुत सुस्त है। जनसंख्या संबंधी नीतियों में महिलाओं के अधिकारों का हनन हो रहा है। यही वजह है कि उनके लिए अपने स्वास्थ्य, यौन तथा प्रजनन के संबंध में निर्णय लेने की क्षमता सीमित रह गई है।

विश्व भर में चालीस फीसद से अधिक महिलाएं प्रसव समेत अपने लिए अन्य बुनियादी निर्णय लेने के अधिकार का इस्तेमाल करने में सक्षम नहीं हैं। उन्हें सशक्त बनाने, उनकी आकांक्षाओं को साकार करने में मदद जरूरी है, ताकि वे अपने जीवन में अपना रास्ता स्वयं तय कर पाएं। इसके लिए शिक्षा और आधुनिक तौर-तरीकों समेत अन्य उपाय अपरिहार्य हैं। लैंगिक समानता को बढ़ावा देने से अनेक सामाजिक समस्याओं को हल करने में मदद मिल सकती है।

जिन देशों में तेजी से आबादी बढ़ रही है, वहां शिक्षा और परिवार नियोजन के जरिए महिलाओं को सशक्त बनाने से मानव पूंजी में अपार लाभ और समावेशी आर्थिक प्रगति को हासिल किया जा सकता है। आज हर किसी के लिए इलाज और चिकित्सा सुविधाओं में एक समान प्रावधान बहुत जरूरी हो गया है। स्वास्थ्य समानता हर मां को सुरक्षित मातृत्व और अपने परिवार के साथ एक स्वस्थ भविष्य का उचित मौका देती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2020 में दुनिया भर में लगभग दो लाख सतासी हजार गर्भवती महिलाओं की मृत्यु हो गई थी। जिस गर्भावस्था में महिलाओं को एक खुशहाली की उम्मीद और सकारात्मक अनुभव चाहिए, दुर्भाग्य से उन्हें बहुत खतरनाक हालात का सामना करना पड़ता है। ऐसी मौतें अत्यधिक रक्तस्राव, संक्रमण, असुरक्षित गर्भपात और एचआइवी या एड्स जैसी बीमारियों के कारण भी हो रही हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि आज के समय में महिलाओं को अपने स्वास्थ्य को लेकर ज्यादा सजग रहने की जरूरत है। निजी स्तर से ही उन्हें इस बात को लेकर खुद पर नियंत्रण रखना होगा कि वे बच्चे पैदा करना चाहती हैं या नहीं, या वे किस उम्र में बच्चे पैदा करना चाहती हैं।
मौजूदा दौर में स्वास्थ्य विशेषज्ञ महिलाओं और नवजात शिशुओं की जीवनरक्षा के लिए गर्भावस्था, प्रसव और प्रसव के बाद उनके लिए उच्च गुणवत्ता की स्वास्थ्य सेवाएं सुनिश्चित किया जाना महत्त्वपूर्ण मान रहे हैं। साथ ही, परिवार नियोजन सेवाओं तक पहुंच, आवश्यक दवाओं और चिकित्सा सामग्री की आपूर्ति, सुरक्षित पानी की उपलब्धता और बिजली के अलावा सक्षम स्वास्थ्यकर्मियों, विशेष रूप से दाइयों की संख्या में वृद्धि की भी आवश्यकता बताई जा रही है।
हैरानी तो यह है कि जहां अमेरिका में मातृ मृत्यु दर बढ़ रही है, भारत में नीचे आ रही है। पिछले वर्ष संयुक्त राष्ट्र ने विश्व में प्रसूताओं की मृत्यु पर जारी रपट में बताया था कि बच्चा जनने के हर दो मिनट में एक महिला की मौत हो जा रही है। वर्ष 2000 में मातृ मृत्यु दर 339 थी, जो दो दशक बाद घटकर 223 हो गई, लेकिन कई देश अपने यहां मातृ मृत्यु दर घटाने में विफल रहे। इस दिशा में वैश्विक विकास लक्ष्य मातृ मृत्यु दर प्रति एक लाख जन्म में सत्तर से कम मौतों का है।

हाल के वर्षों में स्वास्थ्य से जुड़ी कई मुश्किलें बढ़ी हैं। मसलन, कहीं स्वास्थ्य बीमा नहीं, तो कहीं डाक्टर तक पहुंच के लिए लोगों के पास पैसा नहीं। प्रशिक्षित दाइयों की कमी के साथ चिकित्सा सुविधाओं का लाभ न ले पाने की दर में भी आश्चर्यजनक रूप से गिरावट दर्ज हुई है।
पूरी दुनिया में आर्थिक रूप से वंचित तबके सबसे ज्यादा इन हालात की कीमत चुका रहे हैं। उनके सामने जीवन यापन के लिए औसत रहन-सहन, शिक्षा, रोजगार जैसे मसले मुंह बाए खड़े रहते हैं। इन सबके बीच, दक्षिण एशिया में जहां मातृ मृत्यु दर घट रही है, उनमें से भारत में सर्वाधिक सुधार पाया जा रहा है।

बीते दो दशक में भारत में मातृ मृत्यु दर सालाना 6.64 फीसद की दर से लगभग 73 फीसद तक घटी है। इसका कारण, बुनियादी ढांचे का विकास, महिलाओं के शैक्षिक उन्नयन, गरीबी में गिरावट, गुणवत्तापूर्ण मातृ स्वास्थ्य सेवाओं की सुगमता आदि को माना जा रहा है। भारत में केरल ऐसा प्रदेश है, जहां की सालाना मातृ मृत्यु दर (19) अमेरिका से भी कम हो चुकी है, लेकिन असम में यह दर दस गुना से भी अधिक (195) है। फिर भी मौजूदा हालात इस बात के साफ संकेत हैं कि भारत में गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य देखभाल को बेहतर बनाना कितना अपरिहार्य हो गया है। दुखद सच्चाई है कि बीते लगभग एक दशक के दौरान गर्भवती महिलाओं, माताओं और शिशुओं की असमय होने वाली मौतों में कमी लाने के प्रयासों में वैश्विक प्रगति थम-सी गई है। खासकर, वर्ष 2015 के बाद से जीवन रक्षा की दर में बेहतरी के प्रयास ठहर गए हैं।

आज भी हर साल लगभग पैंतालीस लाख महिलाओं और शिशुओं की गर्भावस्था, प्रसव या जन्म के बाद के शुरुआती दिनों में मौत हो जा रही है। हर सात सेकंड में एक मौत की रोकथाम या बचाव, उपयुक्त उपचार के जरिए ही किया जा सकता है। निर्धनता दर में वृद्धि, बिगड़ते मानवीय संकटों से उपजी परिस्थितियों ने स्वास्थ्य प्रणालियों को अत्यधिक प्रभावित किया है।
दुनिया के सौ से अधिक देशों पर केंद्रित एक सर्वेक्षण में खुलासा हुआ है कि विश्व के प्रत्येक दस में से सिर्फ एक देश के पास स्वास्थ्य योजनाओं के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन है। करीब एक चौथाई देशों में गर्भावस्था, प्रसव के बाद और बीमार बच्चों की स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं में अब भी तमाम व्यवधान दर्ज हो रहे हैं।

विश्व भर में गर्भवती महिलाओं और नवजात शिशुओं की अब भी अस्वीकार्य दर पर मौतें हो रही हैं। उन्हें आवश्यक चिकित्सा सुविधा प्रदान करने में भी अतिरिक्त चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। खासकर, प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल में और अधिक निवेश की आवश्यकता है, ताकि प्रत्येक महिला और शिशु के लिए स्वास्थ्य देखभाल तथा जीवित रहने की संभावना में सुधार लाया जा सके।

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*डॉ नरेश पुरोहित:MD, DNB, DIH, MHA, MRCP(UK),   (सलाहकार – राष्ट्रीय प्रजनन एवं बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम ) एक एंडियोमोलॉज, राष्ट्रीय संक्रमण रोग रोकथाम प्रोग्राम के सलाहकार हैं। वे हॉस्पिटल मैनेजमेंट एसोसिएशन के तथा किडनी केयर स्टडी एसोसिएशन के मुख्य निरीक्षक भी हैं |


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