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40 प्रतिशत महिला डॉक्टर अत्यधिक तनाव में काम करती हैं: डॉ नरेश पुरोहित

हमारे सामुदायिक स्वास्थ्य विषेषज्ञ *डॉ नरेश पुरोहित (सलाहकार राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम), द्वारा महिला डॉक्टरों की सुरक्षा पर एक विशेष लेख

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नई दिल्ली : भारत में किए गए अध्ययनों से भी यह स्पष्ट हुआ है कि 40 प्रतिशत महिला डॉक्टर अत्यधिक तनाव में काम करती हैं। इस तनाव का सीधा संबंध मेंटल डिस्ऑर्डर और आत्महत्या के विचारों से है। पिछले एक दशक में भारत में 358 डॉक्टरों और मेडिकल छात्रों ने आत्महत्या की है, जिनमें से 70 प्रतिशत की उम्र मात्र 30 से 40 वर्ष के बीच थी। यह आंकड़ा केवल एक संख्या नहीं है, बल्कि यह समाज के लिए एक गंभीर चेतावनी है। जब देश के युवा और प्रतिभाशाली डॉक्टर तनाव और मानसिक दबाव के कारण अपनी जान लेने पर मजबूर हो रहे हैं तो यकीनन यह हमारे हेल्थ केयर सिस्टम और समाज के लिए एक बहुत बड़ी क्षति है।
डॉक्टर एमबीबीएस के बाद विशेषज्ञ बनने के लिए पीजी की तैयारी में जुट जाते हैं। एक तरफ काम का दबाव होता है, दूसरी ओर पढ़ाई की चिंता सताती है। इससे उपजे तनाव में संतुलन रखना बहुत कठिन होता है। शायद इसी का परिणाम है कि पिछले पांच सालों में 1270 मेडिकल छात्रों ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। इनमें 153 एमबीबीएस तथा 1117 पीजी में एडमिशन लेने वाले छात्र थे, जो एमबीबीएस के बाद विशेषज्ञ डॉक्टर बनने की चाह लिए हुए थे।
देश में आत्महत्या करने वाली महिला डॉक्टरों में सर्वाधिक 22.4 प्रतिशत ‘एनेस्थीसिया विभाग’ (निश्चेतना) की एवं 16 प्रतिशत ‘स्त्री एवं प्रसूति रोग विभाग’ की थीं। इन विभागों के डॉक्टरों के पास ही सर्वाधिक ‘हाई-रिस्क’ वाले मरीज आते हैं, इसलिए उन पर काम का दबाव एवं तनाव ज्यादा होता है।
महिला डॉक्टरों को अपनी प्रोफेशनल लाइफ के साथ-साथ पारिवारिक जिम्मेदारियों का भी संतुलन बनाना पड़ता है, जिससे उनकी स्थिति और जटिल हो जाती है। अस्पतालों में तोडफ़ोड़, डॉक्टरों से मारपीट और अभद्र व्यवहार जैसी घटनाएं भी इस स्थिति के लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं।

यह समस्या बहुत बड़ी है जिसका त्वरित समाधान होना चाहिए, लेकिन यह तभी हो सकता है, जब समस्या की जड़ों तक पहुंचकर असलियत की थाह ली जाए। यह जरूरी है कि महिला डॉक्टरों के दृष्टिगत ‘हेल्थ केयर सिस्टम’ में लिंग संवेदनशील रणनीतियां प्रभावी ढंग से लागू की जाएं। कामकाजी माहौल को महिला डॉक्टरों के लिए अधिक अनुकूल बनाना होगा। इसके साथ ही, डॉक्टरों और छात्रों को मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्रदान करने के लिए विशेष कार्यक्रम शुरू किए जाने चाहिए।

सरकार, मेडिकल संस्थानों, ‘इंडियन मेडिकल एसोसिएशन’ और समाज को मिलकर ऐसे उपाय करने होंगे, जिससे डॉक्टरों और मेडिकल छात्रों के लिए काम और जीवन के बीच संतुलन कायम करना आसान हो। यह भी आवश्यक है कि समाज की ओर से डॉक्टरों पर अनावश्यक अपेक्षाओं का बोझ न डाला जाए। डॉक्टर भी इंसान हैं, उनकी भावनाओं और सीमाओं का सम्मान किया जाना चाहिए। जिस प्रकार डॉक्टर समाज के लिए जुटे रहते हैं, उसी प्रकार समाज के प्रत्येक वर्ग को भी डॉक्टरों के मानसिक स्वास्थ्य एवं सुकून को बनाए रखने के लिए योगदान देना चाहिए।                                                                                                                                                                                                                                            ————————————————————–

*डॉ नरेश पुरोहित- एमडी, डीएनबी , डीआई एच , एमएचए, एमआरसीपी (यूके) एक महामारी रोग विशेषज्ञ हैं। वे भारत के राष्ट्रीय संक्रामक रोग नियंत्रण कार्यक्रम के सलाहकार हैं। मध्य प्रदेश एवं दूसरे प्रदेशों की सरकारी संस्थाओं में विजिटिंग प्रोफेसर हैं। राष्ट्रीय कैंसर नियंत्रण कार्यक्रम , राष्ट्रीय पर्यावरण एवं वायु प्रदूषण के संस्थान के सलाहकार हैं। एसोसिएशन ऑफ किडनी केयर स्ट्डीज एवं हॉस्पिटल प्रबंधन एसोसिएशन के भी सलाहकार हैं।

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