भारत की सनातन संस्कृति में सम्प्रदाय, समुदाय की अवधारणा है जिसमें हर व्यक्ति का योगदान होता है।
धर्म है समाज सेवा :
भारत की सनातन संस्कृति में सम्प्रदाय, समुदाय की अवधारणा है जिसमें हर व्यक्ति का योगदान होता है। इसके निर्माण में हर किसी का सक्रिय सहयोग ही धर्म है। भीष्म पितामह ने भी धर्मोपदेश में कहा है :
अजीजीविषवो विद्यम यशः कामो समन्ततः। ते सर्वे नर पापिष्ठाह धर्मस्य परिपंथिन:।।
अर्थात जो व्यक्ति अपने ज्ञान व क्षमताओं का उपयोग केवल अर्थ और काम के लिए करते हैं वे सभी घोर पापी एवं धर्म द्रोही हैं। इससे बचने के लिए धर्म और मोक्ष में भी अपने ज्ञान व क्षमता का उपयोग करना होगा, इसी को समष्टि, समुदाय, सम्प्रदाय एवं वर्तमान में समाज की सेवा कहा जाता है। धर्म व मोक्ष के रूप में समष्टि अभ्युदय हर मनुष्य का नैसर्गिक/धार्मिक दायित्व है।
पश्चिमी देश के एक मनोविज्ञानी अब्राहम मैसलो ने मनुष्य व्यवहार (Human behavior ) का एक सिद्धांत १९४३ में प्रतिपादित किया था। मैनेजमेंट विषय में पढ़ाया जाने वाला यह एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो यह बताता है कि किसी भी आदमी का व्यवहार उसकी अपनी निजी आवश्यकताओं के अनुसार बदलता है। हालाँकि इसका एक सामान्य क्रम है। इस क्रम में सबसे पहली आवश्यकता है, अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति। जिसमें रोटी, कपडा, मकान इत्यादि के अलावा जैसे सोना, यौन- क्रिया इत्यादि शामिल है। फिर आता है जीवन में आने वाली तरह-तरह की परेशानियों से मुक्ति के लिए सुरक्षा इसमें शामिल है जीवन यापन के लिए पर्याप्त धन, अच्छा स्वास्थ्य ,परिवार इत्यादि की प्राप्ति । इन दो आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद नंबर आता है दोस्तों, परिवारजनों के बीच आदर जिससे उसमें सामाजिक प्राणी होने का भाव जाग्रत होता है। दुनिया में ८० प्रतिशत लोग इन तीन आवश्यकताओं की पूर्ति में ही पूरा जीवन बिताते है। इस क्रम में अगला नंबर आता है समाज में पहचान बनाने का एवं प्रसिद्धि पाने का ।
और अंत में आदमी ‘सेल्फ रिअलाइजेशन ‘यानि मैं कौन हूँ ? मेरा जन्म क्यों हुआ है इत्यादि प्रश्नों के उत्तर पाना चाहता है , ताकि इस जीवन मरण से सदैव के लिए मुक्ति मिले और मोक्ष प्राप्ति की और अग्रसर हो सके ।
लेकिन पश्चिमी देशों की सोच से इतर सनातन धर्म में सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद समाज सेवा के लिए समय और धन देने को ही धर्म बताया गया है। गुरु नानक देव जी ने अपनी कमाई का दशांश समाज सेवा के लिए देने की प्रेरणा दी है। इसी विषय पर संत कबीर दास ने एक दोहे में सीख दी और कहा है :
पानी बाढ़े नाव में, जेब में बाढ़े दाम, दोऊ हाथ उलीचिए यह सज्जन को काम।
समाज की सेवा सबका काम है नाकि कुछ विशेष लोगों का। मनुष्य जीवन एक अवसर है मनुष्यता की सेवा करने का । दरअसल जब हम यह कहते है की मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो उसके पीछे जो भाव है वह यह है की मनुष्य अकेला नहीं रह सकता। इसीलिए मनुष्य समाज के निर्माण में अपना योगदान कर इसे बनाता है और फिर इसका उपभोग करता है। परन्तु समाज में देखने से पता चलता है की एक वर्ग अपना अधिकांश समय अपने और परिवार के लिए धन उपार्जन में लगाता है लेकिन जब संसाधनों के उपभोग की बारी आती है तब सबसे ज्यादा उपभोग उन्हीं के द्वारा होता है जिन्होंने इसके लिए सबसे कम योगदान किया है। चूंकि सामाजिक संरचना ऐसी है की संसाधनों के उपभोग की सुविधा पैसे के बदले में आसानी से उपलब्ध हो जाती अतः यह तरीका सरल है और कम समय में उपभोग की सुविधा प्राप्ति हो जाती है। इस व्यवस्था का ही परिणाम है की समाज सेवा में लगे हुए लोग भौतिक सुख से तो वंचित रहते ही है साथ ही उनकी सेवा के परिणाम स्वरूप समाज में हुए सकारात्मक परिवर्तन के कारण अपने योगदान के लिए जिस स्वाभाविक सम्मान के वे अधिकारी है वह भी मुश्किल से ही मिलता है। नतीजा, समाज सेवा को जीविका का विकल्प बनाये जाने के लिए प्रेरणा का अभाव रहता है। जिससे समाज में अनेक प्रकार की विकृतियाँ होती है और उसका खामियाजा किसी न किसी रूप में समाज के सभी लोगों को भुगतना पड़ता है। असल में समाज में सेवा करने वाले लोग दूध में चीनी की तरह है जिनका काम दिखता नहीं है किन्तु इसका अभाव जरूर महसूस होता है।
समाज में गुणात्मक परिवर्तन के लिए इस व्यवस्था में परिवर्तन की आवश्यकता है। नयी व्यवस्था में जिसका जितना योगदान उतना उसका प्रतिफल के सिद्धांत को अमल में लाना चाहिए। समाज सेवा के लिए संकल्पित लोगों को साधारणतया जीवन व्यापने के लिए मान धन ऐसे व्यापारिक प्रतिष्ठानों से प्राप्त होता है जिनकी सामाजिक कार्यो में रुचि हो अथवा सामाजिक दाईत्व कानून का निर्वाह करने हेतु बड़े व्यापारिक प्रतिष्ठान इस कार्य के लिए अपना योगदान करते है। सरकार के द्वारा इस योगदान को कर में छूट देकर सम्मानित किया जाता है। इस तरह सामाजिक दाइत्वों का निर्वाह समाज की अलग अलग आकाओं द्वारा होता है।
समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए यह व्यवस्था ठीक है परन्तु पर्याप्त नहीं है। दरअसल इस व्यवस्था की एक बड़ी खामी है की यह समाज के सभी लोगों को योगदान करने के लिए न प्रेरित करती है न मजबूर करती है। वैकल्पिक व्यवस्था के रुप में जैसे वित्तीय विश्वसनीयता के प्रमाणी करण का क़ानूनी प्रावधान है, उसी प्रकार का प्रावधान सामाजिक प्रमाण करण के लिए भी बनाये जाने की आवश्यकता है। जैसे एक बार वित्तीय सुविधाओं का दुरुपयोग करने पर दोबारा यह सुविधा उपलब्ध नहीं होती है उसी तरह समाज के संसाधनों का एक बार दुरुपयोग किये जाने के बाद उसी व्यक्ति द्वारा दोबारा दुरुपयोग किये जाने की सम्भावना ख़त्म हो जानी चाहिये। यह नियम समाज के लोगों को समाजोपयोगी कार्यों को करने के लिए प्रोत्साहित करेगा। यदि इसका प्रमाणी करण भी हो सके तो इसमें अपना योगदान करने के लिए हर व्यक्ति प्रेरित हो सकेगा। और संसाधनों के उपभोग के साथ ही निर्माण में भी योगदान अपनी दिनचर्या में कुछ समय समाज के लिए देना है इसका निर्धारण करेगा। साथ ही जैसे अन्य दैनिक कार्य नियमित करने का नियम दिनचर्या में होता है उसी तरह समाज निर्माण में भी उसका योगदान सुनिश्चित हो जायेगा। यह पहल समाज निर्माण में एक नई शुरुवात होगी।
विद्यार्थी जीवन में एन .सी .सी. और एन. एस. एस. जैसे अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में साधारणतया काफी विद्यार्थियों की भागीदारी रहती है। इसका मुख्य कारण है की इस तरह की भागीदारी नौकरी प्राप्ति में सहायक होती है। इसलिए इसमें विद्यार्थियों की उत्साह पूर्वक भागीदारी होती है। पश्चिमी देशों में तो उच्च शिक्षा में प्रवेश के लिए यह एक आवश्यक शर्त है। आज आवश्यकता इस बात की है कि यह प्रेरणा विद्यार्थी जीवन के बाद भी बनी रहे।
अतः यह आवश्यक है की ऐसा तन्त्र विकसित किया जाये जो सेवा के कर्तव्य पालन के लिए सभी लोगों को प्रेरित और प्रोत्साहित करें ताकि सबका समावेशी विकास सुनिश्चित किया जा सकेगा। तभी हम आदर्श समाज की स्थापना का लक्ष्य प्राप्त करने की और अग्रसर हो सकेंगे।
में डरता हूँ सज्जनों की निष्क्रियता से !!! ———-
अजय सिंह “एकल”
——– Author, Ajay Singh ‘Ekal’.. is a social entrepreneur, associated with Ekal Vidyalaya organization, for over 15 years. The NGO has over 1,10,000 schools in rural India. Ajay Singh is Member, Dish Committee, Ministry of Rural Development; Centre for Rural Growth. Promoted Youth4Nation along with many likeminded national veterans, for making youth aware of Indian Heritage, untold history, the thought and purpose of Nationalism.
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