गरीबों के लिए मौत बनते स्कूल भवन
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गरीबों के लिए मौत बनते स्कूल भवन

पिपलोदी हादसा एक चेतावनी नहीं, एक हत्या है, सवाल उठाते हैं सरकारी लापरवाही पर।

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पिपलोदी  राजस्थान के पिपलोदी गांव में स्कूल की छत गिरने से मासूम बच्चों की मौत ने एक बार फिर सरकारी सिस्टम की बेरुखी और लापरवाही को उजागर कर दिया है। हादसा महज एक दुर्घटना नहीं बल्कि एक साजिश की तरह लग रहा है जिसमें सबसे गरीब, सबसे असहाय और सबसे मासूम वर्ग को निशाना बनाया गया है। क्या यह केवल एक ‘भवन हादसा’ है, या फिर उन अनगिनत ‘हत्या जैसे हादसों’ की एक और कड़ी?

सरकारी स्कूल भवनों की हालत किसी से छिपी नहीं है। सालों से जर्जर भवनों में पढ़ाई चल रही है। दीवारों पर दरारें, छतों से टपकता पानी, कमजोर नींव और जगह-जगह से उखड़ती ईंटें — यह सब आम दृश्य हैं। फिर भी स्थानीय प्रशासन और शिक्षा विभाग आंखें मूंदे बैठे रहते हैं। शायद इसलिए क्योंकि इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की जान की कीमत उनके लिए दो कौड़ी की भी नहीं।

हर बार जब ऐसा हादसा होता है, मीडिया में शोर मचता है, कुछ अफसर सस्पेंड होते हैं, मुआवजे की घोषणा होती है और फिर सब शांत हो जाता है। लेकिन सवाल उठता है कि इन स्कूलों का ऑडिट कब किया गया था? क्या किसी इंजीनियर ने भवन की सुरक्षा जांच की थी? यदि नहीं, तो दोष किसका है? क्या यह सीधी-सी बात नहीं है कि यदि एक कमजोर दीवार गिरने से कोई जान जाती है, तो वह हत्या मानी जाए?

सरकार की योजना और बजट दस्तावेजों में करोड़ों रुपए स्कूल भवनों की मरम्मत और रखरखाव के लिए निर्धारित किए जाते हैं, लेकिन जमीनी सच्चाई कुछ और ही कहती है। अधिकारी और ठेकेदारों की मिलीभगत से बजट तो जारी होता है, लेकिन स्कूल वैसे ही खस्ताहाल रहते हैं। इन स्कूलों में पढ़ने वाले गरीब और ग्रामीण परिवारों के बच्चे आखिर कब तक इस अनदेखी का शिकार बनते रहेंगे?

मुख्यमंत्री या मंत्री भले ही मुआवजा देकर अपनी जिम्मेदारी पूरी समझें, लेकिन समाज को इस सवाल का जवाब चाहिए कि क्या इन मासूमों की मौत रोकी नहीं जा सकती थी? क्यों समय रहते जर्जर भवनों को गिराकर नए भवन नहीं बनाए जाते? और क्या यही हाल किसी बड़े निजी स्कूल या शहर के प्रतिष्ठित संस्थान का होता, तो भी इतनी बेरुखी दिखाई जाती?

यह हादसा हमें केवल शोक में नहीं डालता, यह हमें झकझोरता है। हमें सवाल पूछने पर मजबूर करता है। क्योंकि बच्चों की जान कोई आंकड़ा नहीं है — वह एक पूरा जीवन है, एक सपना है जो शायद अब कभी पूरा नहीं होगा।

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