एसवाईएल विवाद फिर गरमाया, पंजाब अड़ा
पानी के बंटवारे को लेकर केंद्र पर दबाव, हरियाणा को फिर दी गई नसीहत……
चंडीगढ़ में एक बार फिर एसवाईएल (सतलुज-यमुना लिंक) नहर विवाद ने जोर पकड़ लिया है। पंजाब सरकार ने केंद्र सरकार पर कूटनीतिक दबाव बनाना शुरू कर दिया है कि एसवाईएल नहर परियोजना को रद्द करने की दिशा में कदम उठाए जाएं। वहीं, हरियाणा को पानी की जरूरत और संवैधानिक अधिकारों की दुहाई देकर यह मुद्दा फिर से चर्चा में आ गया है।
दरअसल, यह विवाद 1981 के जल बंटवारा समझौते से उपजा था, जिसके तहत भाखड़ा डैम से हरियाणा को पानी पहुंचाने के लिए 214 किलोमीटर लंबी एसवाईएल नहर का निर्माण किया जाना था। इस नहर का 122 किलोमीटर हिस्सा पंजाब में और 92 किलोमीटर हिस्सा हरियाणा में बनना था। हरियाणा ने अपनी सीमा में नहर का निर्माण कर लिया था, लेकिन पंजाब में यह अधूरा रह गया।
पिछले कुछ सालों में पंजाब सरकार की ओर से एसवाईएल के विरोध में लगातार बयान आते रहे हैं, और अब एक बार फिर पंजाब सरकार ने केंद्र सरकार से अपील की है कि पंजाब में इस परियोजना को न लागू किया जाए। पंजाब का तर्क है कि राज्य में पानी की भारी कमी है और नहर बनाने से किसानों को भारी नुकसान होगा।
पंजाब के अधिकारियों का कहना है कि राज्य पहले ही भूजल संकट की कगार पर है। वहीं दूसरी तरफ हरियाणा की ओर से यह कहा गया है कि यह पानी उनका संवैधानिक अधिकार है और सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी उनके पक्ष में है।
केंद्र सरकार की भूमिका इस पूरे मुद्दे में बेहद नाजुक है। केंद्र एक ओर राज्यों के बीच समन्वय बनाना चाहता है, वहीं दूसरी ओर कोर्ट के आदेशों का पालन भी कराना उसकी जिम्मेदारी है। सूत्रों की मानें तो आने वाले दिनों में इस मुद्दे पर एक उच्च स्तरीय बैठक बुलाई जा सकती है जिसमें दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री, जलशक्ति मंत्रालय और केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधिकारी मौजूद रहेंगे।
राजनीतिक रूप से भी यह मुद्दा गर्माया हुआ है। पंजाब में जहां विपक्ष इसे किसानों के हित में बता कर सरकार पर हमलावर है, वहीं हरियाणा में इस मुद्दे पर जनता के बीच सरकार की साख दांव पर है।
इस बार विशेष बात यह है कि पंजाब ने केंद्र को एक विस्तृत रिपोर्ट सौंपते हुए सुझाव दिया है कि यदि एसवाईएल नहर का निर्माण किया भी जाता है, तो उसका उपयोग केवल पर्यावरणीय बहाव और विशेष आपातकालीन स्थितियों में किया जाए, ना कि स्थायी जल आपूर्ति के लिए।
अभी यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या केंद्र सरकार दोनों राज्यों के बीच कोई समाधान निकाल पाती है या यह मुद्दा एक बार फिर कानूनी और राजनीतिक लड़ाई में उलझा रहेगा। लेकिन इतना तय है कि दोनों राज्यों के किसानों और नागरिकों की नज़रें इस विवाद पर टिकी हुई हैं।