आरोपी सांसद पुत्र को मिला विधि अधिकारी पद
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आरोपी सांसद पुत्र को मिला विधि अधिकारी पद

यौन उत्पीड़न मामले में घिरे विकास बराला की नियुक्ति पर उठे सवाल, सरकार की नैतिकता पर बहस शुरू

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हरियाणा की राजनीति और प्रशासनिक व्यवस्था एक बार फिर सवालों के घेरे में है, जहां यौन उत्पीड़न और अपहरण के प्रयास के गंभीर आरोपों का सामना कर रहे भाजपा राज्यसभा सांसद सुभाष बराला के बेटे विकास बराला को विधि अधिकारी नियुक्त कर दिया गया है। यह खबर जैसे ही सामने आई, सोशल मीडिया से लेकर सियासी गलियारों तक में इस फैसले की आलोचना शुरू हो गई है।

विकास बराला पर कुछ साल पहले एक पूर्व आईएएस अधिकारी की बेटी ने पीछा करने और जबरन गाड़ी में बैठाने की कोशिश का आरोप लगाया था। यह मामला न सिर्फ राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में रहा बल्कि महिलाओं की सुरक्षा को लेकर उठे सवालों को और गंभीर बना गया था। मामले में चार्जशीट दाखिल हो चुकी है और अदालती प्रक्रिया जारी है, बावजूद इसके उन्हें सरकारी पद पर नियुक्त किया जाना समाज की संवेदनाओं को झकझोरने वाला फैसला माना जा रहा है।

प्रदेश सरकार की ओर से की गई यह नियुक्ति अब जनभावनाओं के खिलाफ जाती दिख रही है। सवाल यह नहीं कि विकास बराला कानून के अनुसार दोषी हैं या नहीं, बल्कि यह है कि जब एक व्यक्ति पर गंभीर आपराधिक आरोप लंबित हों, तब क्या उसे सार्वजनिक पद या संवैधानिक जिम्मेदारी दी जा सकती है।

लोगों की भावनाएं उस लड़की और उसके परिवार के साथ हैं जो अब भी न्याय के लिए अदालत के दरवाज़ों पर खड़ी है। सोशल मीडिया पर कई लोगों ने सवाल उठाए हैं कि क्या सरकार ने एक तरह से ऐसे मामलों को ‘सामान्य’ मान लिया है और क्या सत्ता के प्रभाव में कानून को ताक पर रखा जा सकता है।

राजनीतिक दलों ने भी इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी है। विपक्षी दलों ने कहा कि यह नियुक्ति न केवल गलत संदेश देती है बल्कि यह दर्शाती है कि सत्ता पक्ष महिलाओं के मुद्दों को लेकर कितने असंवेदनशील हो सकते हैं। वहीं, सरकार की तरफ से इस नियुक्ति को लेकर अभी तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, जिससे विवाद और गहराता जा रहा है।

इस घटनाक्रम ने फिर यह सोचने पर मजबूर किया है कि क्या सत्ता और नैतिकता अब दो अलग-अलग ध्रुव बन चुके हैं। आम जनता, खासकर युवतियां और महिलाएं, इस सवाल को लेकर चिंतित हैं कि जब आरोपी को सम्मानित पद दिए जा सकते हैं, तो आम आदमी की शिकायतें और पीड़ा किस हद तक अनसुनी रह सकती हैं। अब देखना होगा कि क्या इस विवादित नियुक्ति पर सरकार पुनर्विचार करेगी या फिर इसे राजनीतिक दबाव में ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा।

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