पंजाब की सियासत में शिरोमणि अकाली दल (शिअद) का भविष्य इन दिनों चर्चा का बड़ा मुद्दा बना हुआ है। पार्टी के भीतर बादल परिवार और बागी गुट के बीच जारी खींचतान ने संगठन को दो हिस्सों में बांटने का खतरा खड़ा कर दिया है। सवाल यह है कि अकाली दल का असली वारिस कौन होगा और क्या आने वाले समय में यह विवाद सुलझेगा या फिर लंबी खिंचने वाली सियासी जंग में तब्दील हो जाएगा।
अकाली दल, जो कभी पंजाब की सबसे मजबूत राजनीतिक ताकत थी, हाल के वर्षों में चुनावी हार और आंतरिक मतभेदों से कमजोर पड़ा है। पार्टी के संरक्षक प्रकाश सिंह बादल के निधन के बाद नेतृत्व की बागडोर उनके बेटे सुखबीर सिंह बादल के हाथ में है। लेकिन पार्टी के अंदर कुछ वरिष्ठ नेता और बागी गुट सुखबीर की नेतृत्व शैली पर सवाल उठाते रहे हैं। इनका आरोप है कि पार्टी का जनाधार घट रहा है और नए नेतृत्व की जरूरत है, जो जनता के साथ सीधा जुड़ाव रखता हो।
बागी गुट का कहना है कि सुखबीर के नेतृत्व में पार्टी ने कई अहम राजनीतिक मौके गंवाए, जबकि जनता से जुड़े मुद्दों पर पार्टी की आवाज कमजोर रही। दूसरी ओर, बादल गुट का तर्क है कि बागी नेता व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के चलते पार्टी को नुकसान पहुंचा रहे हैं और इस समय एकजुट रहना ही सबसे जरूरी है।
पॉलिटिकल एक्सपर्ट्स का मानना है कि अकाली दल की मौजूदा स्थिति सिर्फ नेतृत्व विवाद का नतीजा नहीं है, बल्कि बीते कुछ वर्षों में पार्टी की नीतियों और गठबंधन रणनीतियों में आई कमजोरियों का असर है। किसान आंदोलन, केंद्र सरकार से रिश्ते और पंजाब में बदलते राजनीतिक समीकरणों ने भी पार्टी की छवि पर असर डाला है।
कुछ जानकारों का मानना है कि यदि दोनों गुटों के बीच पैचअप हो जाता है तो पार्टी को पुनर्जीवित करने का मौका मिल सकता है। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि नेतृत्व का मुद्दा सहमति से तय किया जाए और संगठन में नए चेहरों को जिम्मेदारी दी जाए। वहीं, कुछ विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि मौजूदा हालात में पैचअप मुश्किल है, क्योंकि दोनों गुट अपनी-अपनी राजनीतिक जमीन बचाने में जुटे हैं।
अगर विवाद सुलझा नहीं, तो अकाली दल को आगामी विधानसभा चुनावों में और भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। पंजाब की राजनीति में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस पहले से ही मजबूत स्थिति में हैं, ऐसे में अकाली दल के लिए एकजुटता ही जीत की कुंजी हो सकती है।
इस पूरे घटनाक्रम पर पंजाब के मतदाता भी बारीकी से नजर रखे हुए हैं। उन्हें यह देखना है कि क्या पार्टी अपने पुराने गौरव को वापस पा सकेगी या फिर आंतरिक कलह इसे और कमजोर कर देगी। आने वाले महीनों में ही यह साफ हो पाएगा कि अकाली दल का वारिस कौन होगा और क्या यह राजनीतिक संघर्ष समाप्त होगा या लंबा चलेगा।