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विभिन्न धार्मिक विचारों के संगम हैं वेद !

वैदिक सनातन धर्म बहुत से सिद्धांतों एवं धार्मिक विचारों का संगम है। वैदिक क्रिया-संस्कार, वेदांतवादी विचार, वैष्णववाद, शैववाद, शक्तिवाद तथा अन्य संप्रदाय बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियों की बड़ी-बड़ी विषमताओं के साथ विभिन्न समुदायों एवं मनुष्यों की आवश्यकताओं के अनुसार अभिव्यक्ति पाते रहे हैं तथा फूलते-फलते रहे हैं। न कोई वेदों के उद्गम के बारे में जानता है और न ही उनके विस्तार के बारे में। वेद विश्व साहित्य के रंग मंच पर सर्वाधिक पर ज्ञान-विज्ञान के पहले ग्रंथ है, जिनसे प्राचीनता में कोई बराबरी नहीं कर सकता। यही कारण है कि वे सनातन कहे जाते हैं।

वेदों में अटूट श्रद्धा

भारत के वैदिक व सांस्कृतिक इतिहास की विशेषताएं उल्लिखित की जा सकती हैं। वैदिक काल से लेकर आज तक एक अटूट धार्मिक परंपरा रही है। सभी धार्मिक क्रिया-संस्कारों एवं उत्सवों में वैदिक मंत्रों का प्रयोग सहस्राब्दियों से आज तक किया जा रहा है। वैदिक देवों की पूजा भारतीय समाज आज भी कर रहा है। सभी कृत्यों के आरम्भ में अब भी अग्नि स्थापित की जाती है। पुरोहित प्रात: एवं सायं की पूजा में अब भी मित्र एवं वरुण के मंत्रों का पाठ करते हैं।

एक ईश्वर के कई नाम:

ऋग्वेद के काल से अब तक चली आई हुई अत्यंत विलक्षण धारणा है ’एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ यानी मूल तत्व एक है, भले ही लोग उसे इंद्र, मित्र, वरुण या अग्नि आदि किसी भी नाम से क्यों न उसे पूजित करें। महाभारत, पुराण, संस्कृत काव्यों के काल एवं मध्य-काल में जबकि विष्णु, शिव या शक्ति से संबंधित बहुत से संप्रदाय थे, सभी हिंदुओं में यह अन्तश्चेतना व्याप्त है कि ईश्वर एक है, जिसके कई नाम हैं। अत: यह कहना कि एकेश्वरवाद वेदों में नहीं है, नितांत अज्ञानतापूर्ण और भ्रामक है।

एकेश्वरवाद और बहुदेववाद : वैदिक देवताओं के अनेक स्वरूप एवं वर्णनों को देखकर साधारण जिज्ञासुओं की धारणा हो सकती है कि वैदिक काल के व्यक्ति बहुदेववादी थे परंतु तीक्ष्णबुद्धि लोग सरलता से समझ सकेंगे कि उस काल में न एकेश्वरवाद था न बहुदेववाद बल्कि श्रद्धा और विश्वास का एक ऐसा स्वरूप था जिससे इन दोनों की उद्भूति हुई। बहुदेववाद में जिस प्रकार प्रत्येक देवता की अपनी भिन्न निष्ठा निर्धारित होती है वह स्थिति वहां नहीं है। भावनाओं एवं श्रद्धा के प्रवाह के कारण कभी जिस देवता की स्तुति प्रारंभ होने लगती है वह देवता अन्य सभी पर व्याप्त हो जाता है और अन्य सभी पृष्ठभूमि चले जाते हैं और नगण्य हो उठते हैं।

वेद कहते हैं, सहिष्णु बनो

वैदिक संस्कृति ने सभी कालों में विचार-स्वातंत्र्य एवं उपासना-स्वातंत्र्य की भावनाओं की पूजा की। संसार में कुछ धर्मों ने स्वधर्म-विरोधियों को, चाहे वे वास्तव में रहे हों या उन पर शंका मात्र रही हो, कितनी यातनाएं दी हैं, इससे विश्व इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। हिंदू धर्म में इस प्रकार की असहिष्णुता का पूर्णत: अभाव है। हिंदू धर्म किसी स्थिर धार्मिक पक्ष से बंधा नहीं है और न यह किसी एक ग्रंथ या प्रवर्तक के रूप में किसी को मानता है।

वास्तव में, व्यक्ति को ईश्वर-भीरु होना चाहिए। सत्य विश्वासों की बात अलग है, जो बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, वह है नैतिक आचरण एवं सामाजिक व्यवहार। हिंदू किसी अन्य धर्म की सत्यता को अस्वीकार नहीं करते और न किसी अन्य व्यक्ति की धार्मिक अनुभूति को ही त्याज्य समझते हैं। एक श्लोक ऐसा है जो भारतीय धार्मिक विशालता एवं उदारता की ओर सारे संसार का चित्त आकृष्ट करता है और धार्मिक विश्वासों एवं पूजा-उपासना के प्रति सामान्य हिंदू-भावना का द्योतक है।

जिसका अर्थ है – ’जो हरि त्रैलोक्यनाथ हैं जिनको शैव शिव के रूप में पूजते हैं, वेदान्ती ब्रह्म के रूप में, बौद्ध बुद्ध के रूप में, प्रमाणपटु (ज्ञान के साधन में प्रवीण या दक्ष) नैयायिक कर्ता के रूप में, जैन शासन में लीन (जैन मत को मानने वाले) लोग अर्हत के रूप में और मीमांसक लोग कर्म (यज्ञ) के रूप में पूजते हैं, वे वांछित फल प्रदान करें।’ महान तर्कशास्त्री उदयन ने ‘न्यायकुसुमांजलि’ (984 ईस्वी) में यही बात लिखी है। सहिष्णुता हिंदू धर्म का सार तत्व है। हिंदू धर्म में तो अनीश्वरवादी (नास्तिक) के साथ भी विनोद किया जाता है, न कि उसे किसी प्रकार की यातना दी जाती है।

मानव पर मानव का ऋ ण :आध्यात्मिक एवं धार्मिक रूप से प्रत्येक व्यक्ति पर तीन ऋण होते हैं – देव-ऋ ण, ऋ षि ऋ ण एवं पितृ-ऋ ण। अति प्राचीन वैदिक काल से ही यह धारणा भारतीय संस्कृति की मौलिक धारणाओं में परिगणित है। प्राचीन विद्या के अध्ययन, यज्ञ-संपादन एवं संतानोत्पत्ति से व्यक्ति क्रम से ऋ षि-ऋ ण, देव-ऋ ण एवं पितृ-ऋ ण से मुक्त होता है। इन तीन ऋ णों में महाभारत एक चौथा ऋ ण जोड़ देता है-मनुष्य ऋ ण, जो अच्छाई अर्थात लोगों के प्रति किए गए अच्छे व्यवहारों से चुकाया जाता है। यह सिद्धान्त केवल ब्राह्मणों तक नहीं सीमित है, प्रत्युत सभी वर्णों को इन ऋ णों से मुक्त होना आवश्यक है।

धर्म से अर्जित हो अर्थ और काम:

महर्षि वेदव्यास ने महाभारत का अंत एक पवित्र प्रार्थना के साथ किया है – ‘मैं हाथ ऊपर उठा कर उच्च स्वर से कहता है किंतु कोई नहीं सुनता ह। धर्म से अर्थ एवं काम (सभी कामनाओं) की उत्पत्ति होती है, धर्म का आश्रय क्यों नहीं लिया जा रहा है? धर्म का त्याग किसी वाञ्छित उद्देश्य से नहीं करना चाहिए, न भय से, न लोभ से और न जीवन के लिए ही इसका त्याग करना चाहिए।

 

धर्म नित्य है, सुख एवं दु:ख अनित्य हैं, जीवात्मा नित्य है किंतु वे हेतु या परिस्थितियां (जिनके फलस्वरूप यह कार्यशील होता है) अनित्य हैं।’ महाभारत में आया है कि तीन (धर्म, अर्थ एवं काम) सभी के लिए हैं, धर्म तीनों में श्रेष्ठ है, अर्थ बीच में आता है और काम सबसे नीचा है, इसलिए जब इनमें से किसी का विरोध होता है तो धर्म का अनुसरण करना चाहिए और अन्य दो को छोड़ देना चाहिए।

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